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छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

जिसका खो गया सारा घर-द्वार

 

Freedom is always and exclusively Freedom for the one who thinks differently

---Rosa luxemburg


जिंदगी के ढेर सारे वर्ष पार करके, जब पीछे मुड़कर पीछे छोड़ आए उन धूसर-धूसर दिनों पर नजर डालती हूँ और उस धूसरता से अचानक ही कोई भूला हुआ सपना, एकदम से सामने आ खड़ा होता है या कोई याद टुप से मेरे अकेले, निर्जन कमरे में घुस आती है और मुझे कँपाती है; रुलाती है, मुझे उन गुजरे हुए दिनों की तरफ खींच ले जाती है तब मेरे कदम क्या उस ओर बढ़े बिना रह पाते हैं? गुज़री हुई जिंदगी के उस अली-गली के अँधेरे को हटा-खिसकाकर, मैं चंद बर्फीली यादें बटोर लाती हूँ। लेकिन इन्हें समेट लाने से क्या लाभ? जो गुज़र गया, वह तो गुज़र गया। जो चला गया, सो चला गया। जो सपने अर्से पहले मरकर बेजान हो चुके हैं, जो सपने अब पहचान में भी नहीं आते, उन्हीं मुर्दा सपनों को, मकड़ों का जाल हटाकर, धूल की पर्ते तोड़कर, नाजुक उँगलियों से समेटकर, दुबारा बटोर लाने में कोई फायदा है भला? जो गुम हो गया, सो तो गुम हो गया। मुझे यह सब पता है। फिर भी मेरे जीवन का निर्वासन, मुझे बार-बार पीछे लौटा लाता है। मैं अपने समूचे अतीत में मोहग्रस्त की तरह चलती रही हूँ! दुःस्वप्न की रात की तरह कई-कई रातें मुझे घोर विषाद की पर्तों में ढके रखती हैं। तभी मैंने उस लड़की की कहानी छेड़ दी है-

एक थी डरपोक और शर्मीली लड़की! जो लड़की सात-सात तमाचे खाकर भी चूँ नहीं करती थी। परिवार के बड़े शासन और शोषण के बेहद सँकरे-से दायरे में पली-बढ़ी-बड़ी हुई! जिस लड़की का साध-आहाद, हर दिन ही उछालकर कूड़े के ढेर में फेंक दिया जाता था! जिस लड़की की नन्ही-सी देह की तरफ रोएँ भरे लोलुप हाथ, बराबर आगे बढ़ते रहे-मैं उसी लड़की की कहानी बयान करने बैठी हूँ। जो लड़की अचानक प्यार कर बैठी; जो लड़की जवानी में कदम रखते ही, विवाह जैसा कांड कर बैठी और दस अन्य आम लड़कियों की तरह ज़िंदगी गुजारने का चाव कर बैठी-मैं उसी लड़की की कहानी बता रही हूँ! जिस लड़की के साथ उसके पति ने फरेब किया जो इंसान उसका सर्वाधिक प्यार था। जिस लड़की के विश्वास का महल, फूस की झोंपड़-झुग्गी की तरह ढह गया। जो लड़की शोक, संताप, वेदना, विषाद से सिमटी-सिकुड़ी रही! चरम लज्जा और लांछन ने जिस लड़की को आत्महत्या जैसे भयंकर राह की ओर घसीट ले जाने की कोशिश की, मैं उसी शोकात लड़की की कहानी सुनाने बैठी हूँ। टूट-फूटकर चकनाचूर हुए सपनों को समेटकर, जिस लड़की ने दुबारा जीने की कोशिश की थी; इस निष्ठुर निर्मम समाज में अपने लिए इत्ती-सी जगह माँगी थी; जो लड़की समाज की रीति-नीति मानकर, पुरुष नामक अभिभावक के आगे अपने को समर्पित करने को लाचार हो गई। इसके बावजूद, जिस लड़की पर, बार-बार एक के बाद एक आघात बरसते रहे, जिस आघात ने कोख में पलता भ्रूण नष्ट कर दिया। जो आघात उसे हर रात रक्ताक्त करता था, जो आघात क्रूरता, कुटिलता, अविश्वास और असहनीय अपमान का आघात है-मैं उसी दलित, दंशित, दुखियारी का किस्सा भर छेड़ रही हूँ! वह दुःखियारी तन-मन में बचा-खुचा ज़ोर समेटकर दुबारा उठ खड़ी हुई। उसे खड़े होने के लिए बस, बित्ता भर जगह चाहिए थी! और इसके लिए इस बार वह किसी के दरवाजे नहीं लगी। वह अकेली ही लड़ती रही, अकेली ही जिंदा रही। खुद ही अपनी पनाह बन गई। इस बार उसने किसी के आगे अपने को अर्पित नहीं किया; वंचित होने की दुहाई देते हुए, वह संन्यासिन भी नहीं हुई! किसी की भी छि:-छिः या धिक्कार की तरफ उसने पलटकर भी नहीं देखा-मैं पलटकर न देखनेवाली, उसी लड़की की कहानी बताने जा रही हूँ! उस लड़की ने समाज के सैकड़ों तरह के संस्कारों की कभी परवाह नहीं की। बार-बार उसके पतन ने ही उसे खड़ा होना सिखा दिया; बार-बार की ठोकर ने ही उसे चलना सिखाया; बार-बार उसकी गुम हुई राह ने ही उसके लिए राह ढूँढ़ दी। धीरे-धीरे वह अपने ही भीतर के नये बोध और विश्वास को जन्म लेते हए देखती रही कि उसका अपना जीवन सिर्फ उसी का है। और किसी का नहीं है। इस जीवन को कामयाब बनाने का हक़ सिर्फ उसी का है। मैं आकार लेती उस लड़की की कहानी सुना रही हूँ, जिसे परिवेश और प्रतिवेश ने विवर्तित किया, उसका निर्माण किया; पितृतंत्र की आग में तपकर, अंत में जो लड़की जली नहीं, बल्कि इस्पात बनकर निखर उठी-उसकी कहानी!

मैंने क्या कोई अन्याय किया है? मेरे मन को जो अन्याय नहीं लगा है, वह भी आज बहुतों की नज़र में मेरा घोरतर अन्याय है। मैंने वह कहानी बताकर, खौफ़नाक किस्म का गुनाह किया है। चूंकि मैंने गुनाह किया है, इसलिए आज मुझे जनता के कठघरे में हाज़िर होना पड़ा है! इसे गुनाह शायद न कहा जाता, अगर मैं यह ऐलान करती कि जिस लड़की की कहानी मैंने बयान की है, वह लड़की मैं हूँ! मैं, तसलीमा! कल्पना में मैं मनमानी कर सकती हूँ, गढ़-गढ़कर झूठ, सिर्फ झूठ लिख सकती हूँ! किसी मामूली लड़की का अन्य दस लड़कियों से अलग-थलग होने की कहानी, न हो माफ भी कर दिया जाए। लेकिन हक़ीक़त की दुनिया में खड़े होकर, खून-मांस की लड़की होने के बावजूद, मैं किस दुःस्साहस से यह ऐलान कर रही हूँ कि वह लड़की मैं हूँ। दुःख को झटककर, मैं उठ खड़ी हुई हूँ। मैंने कसम खाई है कि जैसा मेरा मन चाहेगा, मैं वैसा ही जीवन गुज़ारूँगी। लेकिन मेरा यह दुर्विनीत आचरण लोग क्यों मानने लगे? ऐसी स्पर्धा किसी भी लड़की को शोभा नहीं देती! सच! इस पितृतांत्रिक परिवेश में में पूरी तरह मिसफिट हूँ।

अपने प्रिय देश...इस प्रिय पश्चिम बंगाल में आज मैं एक निषिद्ध नाम हूँ! एक निषिद्ध इंसान! एक निषिद्ध किताब! मेरा नाम जुबान पर नहीं लाया जा सकता, मुझे छूना मना है, मुझे पढ़ना मना है। अगर मेरा नाम लिया, तो जुबान कटकर गिर जाएगी, अगर मुझे छू लिया, तो गंदे हो जाओगे, और मुझे पढ़ा, तो बदन में हिकारत की झुरझुरी फैल जाएगी।

मैं, बस, ऐसी ही हूँ! वह भी क्या आज से?

'द्विखंडित' लिखने की वजह से अगर मुझे सैकड़ों-हज़ारों खंड भी होना पड़े, तो भी मुझे यह कबूल नहीं है कि मैंने कोई गुनाह किया है। आत्मकथा लिखना क्या गुनाह है? जिंदगी की गंभीर, गोपन सच्चाइयाँ जाहिर करना क्या गुनाह है? आत्मकथा की पहली शर्त तो यही है न कि जीवन में जो कुछ भी है, उसे खोलकर बताया जाए, कोई भी गुप्त बात, किसी आड़ में छिपाकर नहीं रखूगी। जो कुछ भी गुप्त और अजाना है, वही बताने के लिए ही तो जीवनी लिखी जाती है। मैंने यह सच, पूरी ईमानदारी से निभाने की कोशिश की है। मेरी आत्मकथा के पहले दो खंड-'मेरे बचपन के दिन' और 'उत्ताल हवा' को लेकर कोई वितर्क नहीं हुआ। इसके बावजूद. तीसरे खंड को लेकर पश्चिम बंगाल में वितर्क शुरू हो गया है। वैसे यह वितर्क मैंने नहीं रचा, औरों ने रचा है! बहुत-से लोगों का कहना है कि मैंने खुद ही ऐसे विषय चुने हैं, जो उत्तेजक हैं। खैर, यह सवाल चाहे जब भी उठे, आत्मजीवनी के मामले में नहीं उठना चाहिए, क्योंकि साल-दर-साल उम्र की दहलीज पार करते हुए, बड़े होते हुए, मैं जिन-जिन तजुर्षों से गुज़री हूँ, मैंने उन्हीं घटनाओं का बयान किया है। मैंने अपने दर्शन-अदर्शन, आशा-हताशा, अपने सुंदर-कुत्सित, अपने सुख-दुःख, क्रोध-क्षोभ और रुलाई के बारे में कहा है! कोई 'स्पर्शकातर' या 'उत्तेजक' विषय, मैंने शौकिया ही नहीं चुन लिया। अपनी जीवनी लिखने के लिए ही मैंने जिंदगी चुन ली। यह जिंदगी अगर 'स्पर्शकातर' और 'उत्तेजक' हो तो अपना जिंदगीनामा लिखते हुए मैं 'अ-स्पर्शकातर' और 'अनुत्तेजक' विषय कहाँ से लाऊँ? कहा जा रहा है कि वितर्क जगाने या चौंकाने के लिए मैंने यह किताब लिखी है, यानी किताब लिखने के पीछे कोई न कोई बदनीयती होनी ही चाहिए, मानो सच्चाई, ईमानदारी या सरलता कोई वजह नहीं हो सकती। मेरे जिस साहस की तारीफ की जाती थी कि मैं बड़े साहस के साथ काफी कुछ कह जाती हूँ या कर गुज़रती हूँ, वह साहस भी अब कोई वजह नहीं हो सकता। खैर, मेरी रचना के बारे में वितर्क, कोई नई बात नहीं है। मेरे लिखने के शुरू से ही यही होता आया है। मुद्दे की बात क्या यह नहीं है कि-पुरुष प्रधान इस समाज के साथ समझौता न करो, तो वितर्क होगा ही होगा।

आत्मकथा की संज्ञा, बहुतों के लिए बहुत तरह की होती है। अधिकांश लोग ही उसी आत्मकथा को स्वीकार करने के अभ्यस्त हैं, जो कथा भूरि-भूरि अच्छी-अच्छी बातें और आकर्षक आदर्शों की स्थापना करे। आमतौर पर मनीषी लोग ही, दूसरों के जीवन के आदर्शों को आलोकित करने के लिए ही, आत्मजीवनी लिख जाते हैं। वे सच का पता देते हैं, दूसरों को राह दिखाते हैं। मैं कोई ज्ञानी-गुणी इसान नहीं हूँ कोई मनीषी भी नहीं हूँ। महामानव भी नहीं हूँ-कुछ भी नहीं हूँ। अंधजनों को रोशनी देने जैसे महान उद्देश्य को सामने रखकर भी मैंने अपनी जीवनी नहीं लिखी। मैंने तो सिर्फ एक क्षुद्र इंसान के ढेरों ज़ख्म और क्षोभ ही खोलकर दिखाए हैं।

मैं कोई बड़ी साहित्यकार नहीं हूँ, कोई अहम व्यक्ति भी नहीं हूँ, फिर भी इस बात से इनकार करने का कोई उपाय नहीं है कि मेरी जिंदगी में काफी बड़ी-बड़ी घटनाएँ घटी हैं। मेरे विश्वास और आदर्शों की वजह से अगर लाखों लाख लोग, मेरी फाँसी की माँग करते हुए, सड़कों पर उतर पड़ें, अगर भिन्न मत होने के कारण, एक के बाद एक, मेरी तमाम किताबें निषिद्ध कर दी जाएँ, अगर सच बोलने के जुर्म में पूरा राष्ट्रयंत्र, अपने देश में रहने का अधिकार छीन ले, तो उस जीवन को सीधा-सादा जीवन नहीं कहा जा सकता। इस जीवन की कहानी, दूसरों की जुबानी, सैकड़ों ढंग, सैकड़ों रंग में प्रचारित हो ही रही है, तो अपनी जिंदगी का सारा कुछ, शुरू से अंत तक बयान करने की जिम्मेदारी, खुद मैं ही क्यों न उठा लूँ? अपनी इस जिंदगी के बारे में जितना ज़्यादा जानती हूँ, उतना और कोई भी नहीं जानता।

अगर मैं अपने को उन्मुक्त न करूँ, अपना सारा कुछ जाहिर न करूँ, खासकर जीवन की वे तमाम घटनाएँ, तमाम बातें, जो मुझे आलोड़ित करती रही हैं, वह सब जाहिर न करूँ, अगर मैं अपना भला-बुरा, गुण-दोष, शुभ-अशुभ, आनंद-वेदना, उदारता-क्रूरता, खुलकर न बताऊँ, तो वह किताब, और कुछ भले हो, आत्मकथा नहीं हो सकती। कम से कम मेरी नज़र में तो नहीं। साहित्य के लिए साहित्य ही, मेरे लिए आखिरी बात नहीं है। ईमानदारी भी कोई चीज़ होती है और मैं उसकी बेहद कद्र करती हूँ।

अब मेरी जिंदगी चाहे जैसी भी हो, जितनी भी निकृष्ट और निंदनीय हो, अपनी जीवनकथा लिखते हुए, मैंने अपने से फ़रेब नहीं किया है। पाठक मेरी कहानी सुनकर, भले ही मुझसे नफरत करें, मुझे उठाकर फेंक दें, मुझे बस, इतना भर संतोष है कि मैंने अपने पाठको को धोखा नहीं दिया; आत्मकथा के नाम पर अपने पाठकों को कोई कहानी रच-गढ़कर उपहार नहीं दे रही हूँ? जिन्दगी में जो कुछ भी है, सब सच है और सच हमेशा शोभन या सुंदर नहीं होता। इसके बावजूद मैं संकोचहीन होकर कहे जा रही हूँ। जिंदगी में जो कुछ घट गया, सो तो घट ही चुका। मैं उसे बदल नहीं सकती-जो घटा या घट रहा है, वह असली नहीं है-यह कहकर, मैं इन सबसे इनकार भी नहीं कर सकती। जैसे मैं सुंदर को कबूल करती हूँ, उसी तरह असुंदर को भी कबूल कर सकती हूँ।

आजकल मुझ पर निशाना साधकर चारों तरफ से तीर बरसाए जा रहे हैं। अपमान और अफवाहों के कीचड़ में मुझे गर्क किया जा रहा है और इसकी वजह सिर्फ एक है, मैंने सच कहा है। सच हर वक्त हर किसी को नहीं सहता। 'मेरे बचपन के दिन' और 'उत्ताल हवा' का सच, भले ही सह गया हो, 'द्विखंडित' का सच सबसे नहीं सहा जा रहा है। 'मेरे बचपन के दिन' में जब मैंने अपने चरम अपमान का वयान किया, वह सुनकर लोगों ने संवेदना से अफसोस जाहिर किया। 'उत्ताल हवा' में जब मैं अपने पति द्वारा प्रताड़ित हुई, उस बार भी लोगों ने मुझसे हमदर्दी जताई। लेकिन जब 'द्विखंडित' में मैंने यह बयान किया कि एकाधिकर मर्यों से मेरा रिश्ता रहा है। तभी छिः छिः करते हुए धिक्कार शुरू हो गया। इसका मतलब एक ही होता है कि जब तक लड़की अत्याचार की शिकार और असहाय होती है, जब तक वह कमजोर है और उसका दुःसमय चल रहा है, तभी तक उसके लिए ममता उमड़ती है, तभी तक वह भली लगती है। जैसे ही लड़की असहाय या अत्याचारित नहीं होती, जैसे ही वह मेरुदंड सीधी करके, तनकर खड़ी होती है, अपना अधिकार प्रतिष्ठित करती है, अपने तन-मन की स्वाधीनता के लिए, समाज के सड़े-गले नियम तोड़ देती है, तभी वह नज़र से उतर जाती है। बल्कि उसके प्रति घृणा जन्म लेती है। अपने समाज का यह चरित्र मैं जानती हूँ। यह जानने के बाद भी लोग मुझे जानें, यह जताने में, मैंने कोई दुविधा नहीं की।

'द्विखंडित' किताब पर वितर्क उठने का एक बहत बड़ा कारण है-यौनस्वाधीनता। हमारे इस समाज के अधिकांश लोग चूँकि पुरुषप्रधान संस्कारों में आकंठ निमज्जित हैं। इसलिए किसी औरत की यौन-स्वाधीनता की अकपट घोषणा उन्हें विरक्त, क्षुब्ध और क्रुद्ध करती है। जिस यौन-स्वाधीनता की बात मैंने कही है, वह सिर्फ मेरे विश्वास की बात नहीं है, मैंने अपनी जिंदगी देकर उस स्वाधीनता की प्रतिष्ठा की है, फिर भी चाहे कोई भी मर्द महज चाहने भर से, मुझे नहीं पा सकता। यह समाज अभी भी किसी और की ऐसी आज़ादी के लिए तैयार नहीं है। इस बात को कबूल करने के लिए हरगिज राजी नहीं है कि कोई भी औरत अपनी मर्जी-मुताबिक मर्द के साथ संभोग कर सकती है और ऐसा करके भी बेहद कठोर भाव से यौन-सतीत्व को कायम रख सकती है।

हमारे नामी-दामी, पुरुष-लेखक, इन दिनों मुझे महाखुशी से 'पतिता' कहकर गालियाँ दे रहे हैं। गाली-गलौज देकर, उन लोगों ने खुद ही सावित कर दिया है कि वे लोग कितने भयंकर, गलीज पितृतांत्रिक समाज के सुविधाभोगी पुरुष-प्रभु हैं। वे लोग पतिता को भोग के लिए इस्तेमाल करते हैं और वक्त-मौके पर पतिता शब्द को गाली के तौर पर भी इस्तेमाल करते हैं। औरत को यौन-दासी के तौर पर इस्तेमाल करने का रिवाज आज का नहीं है। हालाँकि 'द्विखंडित किताब में मैंने पुरुष प्रधान समाज के खिलाफ अपनी लड़ाई की बात कही है, मैंने यह भी कहा है कि और धार्मिक संख्यालघु लोगों पर समाज के निर्यातन के खिलाफ प्रतिवाद करना चाहिए। लेकिन कोई भी इस बारे में एक शब्द भी नहीं कह रहा है। जिसने कुछ कहा भी, वह यौनता के बारे में! मेरे किसी दर्द, किसी आँसू की तरफ किसी की नज़र नहीं पड़ी, सबकी निगाह सिर्फ यौनता पर पड़ी! लोगों ने मेरे साथ मर्दो के रिश्तों की चीर-फाड़ की। यौनता जैसे 'गहरा, गोपन, कुत्सित और कदर्य विषय' पर मेरी जुबान खोलने की स्पर्धा ही लोगों ने देखी।

दुनिया के इतिहास में, किसी भी अँधेरे समाज में जब भी कोई औरत पुरुषतंत्र के खिलाफ उठ खड़ी हुई है, जिसने भी अपनी आज़ादी की आवाज़ उठाई है, गुलामी की जंजीरें तोड़ने की कोशिश की है, उसे ही 'पतिता' कहकर धिक्कार दिया गया है। अर्से पहले, ‘नष्ट लड़की का नष्ट गद्य' किताब की भूमिका में मैंने लिखा भी था-'इस समाज की नज़र में अपने को 'नष्ट' कहना मुझे अच्छा लगता है। क्योंकि यह सच है कि अगर कोई औरत अपना दुःख-दुर्दशा मिटाना चाहती है, अगर कोई औरत, किसी धर्म, समाज और राष्ट्र के गंदे-शंदे नियम के विपक्ष में पैर जमाकर खड़ी होती है, उसे कुचलने-पीसने के सारे तरीकों को ठोकर मारती हुई, अगर कोई औरत अपने अधिकारों के प्रति सजग होती है, तो समाज के ठेकेदार, उसे 'नष्ट' औरत कहते हैं। नारी के शुद्ध होने की पहली शर्त है नष्ट होना। नष्ट हुए बिना, इस समाज के नागपाश से औरत की मुक्ति नहीं हो सकती। वही औरत सचमुच स्वस्थ और शुद्ध इंसान है, लोग जिसे 'नष्ट' कहते हैं। आज भी मैं इस बात पर विश्वास करती हूँ कि अगर कोई औरत सचमुच अपनी आज़ादी अर्जित करना चाहती है, अगर सचमुच इंसान बनना चाहती है, तो उसे इस समाज की नज़र में 'नष्ट' होना ज़रूरी है। इस नष्ट समाज की तरफ से 'नष्ट' या 'पतिता' गाली का उपहार पाना, किसी भी औरत के लिए कम सौभाग्य की बात नहीं है। अब तक मुझे जितने भी पुरस्कार मिले हैं, पतिता उपाधि का इनाम मुझे सर्वोत्तम लगता है। पुरुषतंत्र के 'नष्ट हरकतों' की देह पर सच ही मैं चोट करने में कामयाब हुई हूँ, इसलिए मुझे यह उपाधि नसीब हुई है। यह मेरे लेखक जीवन, नारी जीवन और मेरे सुदीर्घ काल के संघर्ष की सार्थकता है!

चूँकि मैंने यह किताब लिखी है, इसलिए बंगलादेश के एक लेखक महोदय ने मेरे विरुद्ध मानहानि का मुकदमा दायर किया है। कलकत्ते में भी एक लेखक, जनाब ने बंगलादेशी लेखक के चरणचिह्नों का अनुसरण किया है। इन लोगों ने सिर्फ मानहानि का दावा करके ही दम नहीं लिया, दोनों ने मेरी किताब निषिद्ध करने की माँग की है। मुझे सच ही समझ नहीं आता कि एक लेखक, कैसे किसी लेखक की किताब निषिद्ध करने की माँग कर सकता है; किस तरह समाज के उसी तबके के लोग, जिनका दायित्व है, मुक्त-चिंतन और वाक्-स्वाधीनता के पक्ष में जंग करना, वे लोग कट्टरवादी जैसी हरकत क्यों कर रहे हैं। मुझे लेकर, अब तक हजारों झूठ, बहुतेरी कल्पित कहानियाँ गढ़ी गई हैं। लेकिन मैं तो उनकी किसी भी रचना को निषिद्ध करने की माँग करती हुई, अदालत नहीं दौड़ी! वाल्टेयर ने जो कहा है, मैं उस पर पूरा-पूरा विश्वास करती हूँ-Je ne suis also lument has d' accord avec vos idees, mais je me hattrais hour que vous huissiez les exprimes—urft 'मैं तुम्हारे मत से शायद एकमत न होऊँ, लेकिन मैं मरते दम तक तुम्हारी वाक्-स्वाधीनता के अधिकार के लिए लड़ता रहूँगा।' हमारे विदग्ध लेखकगण वाक्-स्वाधीनता के पक्ष में इस चरम सत्य को अस्वीकार क्यों करना चाहते हैं?

दुनिया के जाने कितने ही लेखक अपना जिंदगीनामा लिख गए हैं। उन लोगों ने तो जीवन से सिर्फ शुद्ध पवित्र चीजें छानकर नहीं परोसा। अगर इंसान की जिंदगी होती है, तो उस ज़िंदगी में भूल-भ्रांति होती है, कालिख और काँटे होते हैं यानी कुछ न कछ तो होता ही है। महामानव कहकर. हम जिनकी श्रद्धा भक्ति करते हैं. उनके जीवन में भी यह सब मौजद होता है! ईसाई धर्मगरु, अगस्तं (सन 335-430) खद ही अपनी जीवनकथा लिख गए हैं। अल्जीरिया में वे जिस ढंग की जिंदगी गुजारते थे, जैसा असामाजिक, अनैतिक, बंधनहीन जीवन जीते थे-कुछ भी जाहिर करने में, वे ज़रा भी नहीं हिचकिचाए। उनकी यौन स्वेच्छाचारिता, उछंखलता, नाजायज संतान को जन्म देने-कोई भी कहानी उन्होंने गुप्त नहीं रखी। महात्मा गाँधी ने भी कबूल किया है कि कैसे वे अपने बिस्तर पर नंगी औरतों को लिटाकर, अपने ब्रह्मचर्य का इम्तहान लेते थे। फ्रांसीसी लेखक ज्यं जैक रूशो (सन् 1712-1779) को ही लिया जाए। उनकी स्वीकारोक्ति ग्रंथ में उन्होंने भी स्वीकार किया है कि उन्होंने जिंदगी में क्या-क्या किया है। उन्होंने अपनी जिंदगी का कोई गुनाह, कोई बुरी बात किसी गुप्त पिटारी में बंद करके नहीं रखी। उस ज़माने में रूशो के आदर्शों को मान लेने की मानसिकता, बहुत कम ही इंसानों में थी। लेकिन, तो क्या हुआ? उन्होंने किसी बात की परवाह न करके अपनी अपकीर्ति-कथा का खुलकर बयान किया है! मदामाज़ोल गतों तो खैर थी ही, और भी बहुतेरी औरतों को देखकर यहाँ तक कि मदाम द वारेन जिन्हें वे माँ कहते थे, उन्हें भी देखकर, उनके मन में काम-वासना जागती थी, यह बात उन्होंने खुद कबूल की है। बेंजामिन फ्रैंकलिन (सन् 1709-1790) ने अपनी आत्मकथा में अपनी जवानी के उत्ताल उन्मत्त दिनों का बयान किया है। उन्होंने यह भी कबूल किया है कि अपने नाजायज बेटे, विलियम को वे अपनी गृहस्थी में ले आए थे। बट्टैण्ड रसेल ने अपनी जीवनकथा में लिखा है कि विभिन्न औरतों से उनके नाजायज़ संबंध थे। टी. एस. इलियट की बीवी, विवियन के साथ, लेडी अटोलिन मोमेल के साथ, उनके संबंधों की बात कौन नहीं जानता? लिओ टॉलस्टॉय ने चौदह वर्ष की उम्र में ही अपने वेश्यागमन की कहानी खुद ही लिखी है। यहाँ तक कि समाज में निम्न तबके की औरतें, पराई औरतों के साथ उनके यौन-संबंध और अपने यौन रोग-उन्होंने कोई बात नहीं छिपाई। अब, यह सवाल उठ सकता है कि समाज को जो बात कबूल नहीं है, ये लोग ऐसी बातें सुनाते ही क्यों हैं। लेकिन, सुनाने की कोई वजह तो है! वे लोग अपना असली परिचय हरगिज छिपाना नहीं चाहते थे। या उन तजुर्बो का उनके जीवन में काफी महत्त्व है, इसीलिए सुनाया। इससे क्या उन लोगों की जाति चली गई? या उन लोगों को आज कोई बुरा कहता है? नहीं उन लोगों को कोई बुरा नहीं कहता। वे लोग जिस ऊँचाई पर विराजमान थे, आज भी वहीं प्रतिष्ठित हैं, बल्कि सच्चाई व्यक्त करके, उन लोगों ने अपने को और ज़्यादा महिमान्वित किया है। अर्सा हुआ, पश्चिमी देशों में औरत-मर्द के संबंध, अव गुप्त रखने जैसी बात नहीं है। अभी हाल की लड़की, कैथरीन मिल ने Lavie sexuelle de Catherine M नामक किताब में, अपनी ही बात कबूल की है उन्होंने अपनी पूरी किताब में, सन् साठ के दशक में अबाध यौनता के युग में, अनगिनत मर्दो से अपने यौन-संबंधों की रोमांचक कहानी बयान की है। उन्होंने समूची किताब में मैथुन का सजीव वर्णन किया है। इससे क्या फर्क पड़ता है? उस किताब को क्या साहित्यिक किताबों की रैक पर नहीं सजाया गया? बेशक, सजाया गया। गैब्रिएला गार्सिया मार्केज ने भी Vivir hara contarla नामक किताब में पराई औरतों के साथ अपनी लीला-खेल के बारे में कुछ भी नहीं छिपाया। उनके जीवन के लिए, मार्केज को कोई 'बुरा' कहेगा? या कोई उस किताब को निषिद्ध कराने के लिए, अदालत का दरवाज़ा खटखटाएगा?

दुनिया के हर देश में मशहूर लोगों की आत्मकथाएँ प्रकाशित होती हैं। जीवनीकार सालों-सालों रिसर्च करके वे तमाम जीवनी लिखते हैं तमाम गुप्त ख़बरें खोद-खोदकर निकाली जाती हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर की भी गुप्त बातें, गुप्त नहीं रह पाईं। बालविवाह के खिलाफ बोलने के बाद भी उन्हें अपनी नन्ही बेटी के ब्याह की तैयारी क्यों करना पड़ी। वह अशोभन कारण, आज लोगों को पता चल चुका है। सवाल यह है कि ये सब तथ्य क्या पाठकों के लिए जानना ज़रूरी है? किसने कब, कहाँ, क्या किया था, क्या कहा था, उनके जीवन का आचरण कैसा था, अगर इन सबकी जानकारी, नितांत अवांतर होती, तो उन पर रिसर्च क्यों होता? जीवनीकार रिसर्चकर्ता, जिन इंसानों के बारे में अजाने तथ्यों की जानकारी देते हैं, उन सब तथ्यों की रोशनी में, सिर्फ उस इंसान पर ही नहीं, उसकी नई सृष्टि पर भी नए सिरे से विचार और विश्लेषण करना संभव हुआ है।

बंगाली पुरुष लेखकों में बहुत-से लेखक, गुपचुप-गुपचुप बहुतेरी औरतों से प्रेम-प्रेम का शारीरिक खेल खेलते हुए, ज़रा भी कुंठित नहीं होते, अपनी जीवनकथा में वे तमाम घटनाएँ आराम से बाद देकर भी, वे लोग उपन्यास के चरित्रों के जरिए वह सब घटाने-मिटाने में भी संकोच महसूस नहीं करते। लेकिन, इस बात को लेकर कोई सवाल नहीं उठाता। सवाल तो तव उठता है, जब कोई औरत यौनता के बारे में बात करती है, चाहे वह कहानी, उपन्यास में हो या आत्मकथा में! यौनता तो मर्दो के 'बाप की जायदाद' है। लेकिन पुरुष-लेखकों की तरह लिखने से, मेरा काम नहीं चलेगा। मुझे तो धीर-स्थिर होकर लिखना होगा; ढाँक-तोपकर लिखना होगा, क्योंकि मैं औरत जो हूँ! औरत की देह, उसका पेट, स्तन, जाँघे, योनि-इन सबसे खेलना या इस बारे में लिखने का अधिकार तो सिर्फ मर्दो को ही है। लेकिन, औरत को यह हक़ क्यों नहीं होगा? पुरुष-प्रधान समाज ने मुझे यह हक नहीं दिया। अधिकार न पाने की परवाह न करते हुए, मैंने जो लिख डाला, चाहे वह कितना भी करुण या मार्मिक हो वह मेरी कहानी है। मैंने यह जो अनधिकार चर्चा की, इसमें तो सारा एतराज है।

पुरुष के लिए एकाधिक प्रेम और एकाधिक नारी-संभोग, हमेशा ही गौरव का विषय रहा है। और एक अदद औरत जैसे ही कागज-कलम लेकर, अपने प्यार या यौनता को लेकर कुछ लिखती है, वह फौरन दगाबाज़ बन जाती है; असती हो जाती है और बदचलन कहलाती है। मैंने अपनी आत्मकथा में ऐसा कुछ लिखा है, जो 'कहना वर्जित' है। मैंने सीमा-लंघन किया है, मैंने अतिशयता की है। मैंने अश्लीलता दिखाई है; बेहद गंदे-कुत्सित विषय में हाथ डाला है। कहा यह जाता है कि बंद दरवाजे के पीछे जिन घटनाओं को अंजाम दिया जाता है, पारस्परिक समझौते से जो संबंध कायम किया जाता है, वह कहना-बताना अनुचित है! कहते हैं, वह सब कहना कतई ज़रूरी नहीं है। लेकिन मैं इसे ज़रूरी मानती हूँ, सरासर उचित समझती हूँ, क्योंकि अपने संस्कार-संस्कृति, ध्यान-धारणा, विश्वास-अविश्वास समेत, आज जो मैं हूँ, इस तसलीमा के निर्माण में, जीवन घटनाएँ या दुर्घटनाएँ ही अन्यतम मौलिक उपादान हैं। मैं कोई ज़मीन फोड़कर प्रकट नहीं हुई। तिलोत्तमा के खिलाफ, इस बेकहल, नाफर्माबरदार लड़की का निर्माण, तिल-तिल करके, मेरे चारों तरफ के समाज ने किया है। मेरी राय में, अपने को समझने के लिए यह आत्म विश्लेषण जरूरी है।

चलो, अपना सम्मान नष्ट किया, तो किया, औरों का सम्मान क्यों नष्ट करने गई? हालाँकि मैं किसी और की जीवनकथा लिखने नहीं बैठी, अपनी ही आत्मकथा लिख रही हूँ। लेकिन दूसरों के पारिवारिक, सामाजिक वगैरह सम्मानहानि के बारे में, बहुतों ने सवाल उठाया है। मुझे ठीक-ठीक समझ नहीं आता कि अपने मान-सम्मान के मामले में जो लोग इतने सजग हैं, वे लोग जीवन में ऐसी हरकतें करते क्यों हैं, जो सब करते हुए वे लोग भी बखूबी जानते हैं कि इसमें उनका सम्मान नष्ट होगा।

मैंने विश्वास तोड़ा है। लेकिन, मैंने तो किसी से भी वादा नहीं किया कि ये बातें मैं कभी जाहिर नहीं करूँगी। कहते हैं, अलिखित समझौता तो होता है। असल में, समझौते का सवाल वे लोग ही उठाते हैं, जिनको यह खटका लगा रहता है कि उनकी पोल अगर खुल गई, तो उनके देवता-चरित्र पर दाग लग जाएगा। इसीलिए वे लोग मुझे धमकाने के लिए, मुझे लाल-लाल आँखें दिखाते हुए, गुर्राते हैं कि अगर मैं सीमा लाँघी, तो वे लोग मुझ पर समझौता-भंग का इल्ज़ाम लगाकर, मुझे सज़ा देंगे।

मैं जो भी जाहिर करना चाहती हूँ, अगर वह मुझे उचित लगे, तो? उचित-अनुचित की परिभाषा, कौन, किसे सिखाएगा? जो बात मैं अपनी जुबान से कहती हूँ, मुझे अगर वह अश्लील न लगे, तो? श्लील-अश्लील का हिसाव करने का मुखिया कौन है? सीमा नाम देने की जिम्मेदारी किसकी है? अपनी आत्मकथा में मैं क्या लिखूगी या नहीं लिखूगी, कितना-सा लिखूगी, कितना-सा नहीं लिखुंगी, यह फैसला तो मैं ही लूँगी न या कोई और? यह क्या कोई मकसूद अली या करामत मियाँ या परितोष या हरिदास पाल मुझे बताएगा कि मैं क्या लिखू, कितना-सा लिखू?

मेरे समालोचक मेरी आज़ादी को स्वेच्छारिता का नाम देते हैं। असल में हमारी सुरुचि-कुरुचिबोध, पाप-पुण्यबोध, सुंदर-असुंदरबोध-सभी कुछ, युग-युगांतरों से पितृतंत्र शिक्षा का नतीजा है। औरत को नम्रता, नतमस्तक मुद्रा, सतीत्व, सौंदर्य, सहिष्णुता वगैरह की शिक्षा के फलस्वरूप ही ये सब औरत की विशेषता के तौर पर स्वीकृत है। इसलिए हमारी सुनियंत्रित चेतना किसी रूढ़ सच्चाई का सामना करने में, आतंक महसूस करती है। कोई भी निर्मम जुमला सुनते हुए, कान में उँगली डाल लेने का मन करता है, हिकारत से अंग-अंग सिहर उठता है, बहुत से समालोचकों के साथ यही हुआ है, यही सच है मैं लेखिका हूँ या नहीं; अपनी आत्मकथा, मुझे धारावाहिक तरीके से लिखना चाहिए या नहीं-यह सवाल भी उठाया जा रहा है। सच तो यह है कि हर इंसान को आत्मकथा लिखने का अधिकार है। यहाँ तक कि उस अहंकारी पत्रकार को भी अधिकार है, जिनका ख्याल है कि मेरे हाथ में कलम रहने का मतलब ही मनहूसियत है! काफी अशुभ मामला है। मुझ पर यह इल्ज़ाम लगाया जा रहा है कि-मैं निहायत गैर-जिम्मेदाराना हरकत कर रही हैं। जॉर्ज बर्नार्ड शा ने कहा TT-A reasonable man adopts himself to the world. An unreasonable man persists in trying to adopt the world to himself. Therefore, all progress depends upon the unreasonable man. बुद्धिमान और तर्क-संपन्न लोग दुनिया. के साथ ताल-मेल बिठाकर चलते हैं। निर्बोध या युक्तिहीन लोग यह कोशिश करते हैं कि दनिया उनके साथ तालमेल बनाकर चले। अस्तु, सभी प्रगति युक्तिही हीन लोगों पर निर्भर करती है। मैं, तसलीमा, उन्हीं युक्तिहीन लोगों में से एक हूँ। नहीं, मैं यह दावा नहीं करती कि दुनिया की प्रगति मुझ पर हल्की-सी भी निर्भर करती है। मैं नितांत निर्बोध और युक्तिहीन हूँ विद्वानजन का यह मंतव्य, मैं खुशी-खुशी कबूल करने को राजी हूँ। निर्वाध हूँ, इसीलिए तो जुबान पर ताला नहीं जड़ा, जो बातें कहने की मनाही है, वही कहती हूँ। समूचा का समूचा समाज मुझ पर थूक रहा है, फिर भी मैं अपनी जगह से नहीं हटी; निर्बोध हूँ, इसीलिए तो पुरुष-प्रधान समाज के ठेकेदार, जब मझे कचल-पीसकर मार डालने को आगे बढ़ रहे हैं, यह देखकर भी मैं अपनी जगह पर पैर जमाए खड़ी हूँ। सच तो यह है कि मेरी मूर्खता, मेरी निर्बुद्धिता, मेरी युक्तिहीनता ही शायद मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी दौलत है।

धर्म का प्रसंग भी उठा है! जो लोग मुझे जानते हैं, उन्हें पता है कि मैं सभी तरह के धार्मिक दुःशासनों के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करती हूँ। धर्म तो शुरू से लेकर अंत तक पुरुष-प्रधान है! धार्मिक पुरुष और पोथियों की अवमानना पुरुषतंत्र के धारक और वाहकगण भला क्यों बर्दाश्त करें? उन्हीं महापुरुषों ने तो मुझे देश-निकाला दिया है। सच का मोल, मैंने अपनी जिंदगी देकर चुकाया है। अब, मुझे और कितना मोल चुकाना होगा?

दंगे का बहाना दिखाकर, पहली बार पश्चिम बंगाल ने नहीं, इससे पहले बंगलादेश में भी मेरी किताबें निषिद्ध की गई हैं। यह जो उपमहादेश में निरंतर दंगा-फसाद हो रहे हैं, मेरी किताब या मेरा वक्तव्य, उन दंगे-फसादों की वजह नहीं है। वजह कुछ और है! बंगलादेश में संख्यालघु लोगों पर अत्याचार, गुजरात में मुसलमानों की मौत, असम में बिहारियों पर जुल्म, ईसाइयों पर हमले, पाकिस्तान में शिया-सुन्नी के खूनी टकराव में मैं कोई घटना या वजह नहीं हूँ। अति किंचित, नगण्य लेखिका हूँ, मानवता के पक्ष में लिखती हूँ। धर्म-वर्ण-लिंग की भिन्नता के पार, सभी इंसान बराबर हैं। सभी इंसान के तौर पर जीने का हक़ रखते हैं, यही बात मैं पूरे मन और ईमानदारी से लिखती हूँ। नहीं, मेरे लिखने की वजह से, दंगा-फसाद जैसा खौफनाक हादसा कहीं नहीं होता। हादसा जो होना होता है, वह मेरी जिंदगी में ही होता है! अपने लिखने की वजह से सज़ा सिर्फ मुझे ही झेलना पड़ती है, और किसी को नहीं! आग मेरे ही घर में लगती है! अपना समूचा घर-द्वार मुझे ही खोना पड़ता है!

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    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

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